मुझसे जब किसीने पूछा-- Kalingaa...
क्या तुमने कभी इश्क़ किया है
खामोश रहा, मैं कुछ जबाब ना दे सका
एक भूले बिसरे रिश्ते को नाम ना दे सका
हाँ, चला था मैं चार कदम उस ओर
जिस ओर वो रूपाली रहती थी
कुछ अरमान दिल में कलिंग ने बनाए थे
गुमनाम खत में अल्फ़ाज़ सलीके से सजाए थे
सोचा ही था कि वक़्त है अभी इज़हार में
उससे पहले ही आ गया वो मनहूस पल भी
वो क्षण चुपी का, अंतहीन विछोह का
वो क्षण बेवजह की तकरार का
उस तकरार में थे चारों और धब्बे खून के
मैं आ गया सामने उसके रास्ते में
वो थी, मैं था और मौत सा सन्नाटा
उस निगाह से आज भी मेरी रूह काँपती है
निगाह जो कलिंग के फौलाद को चिर गयी
और इस दिल को खंडहर सा तबाह कर गयी...
Nigaah (निगाह)
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