Nigal Gaye Sab Samandar....

निगल गये सब के सब समंदर, ज़मीन बची अब कहीं नहीं है
बचाते हम अपनी जान जिस में, वो कश्ती अब तो कहीं नहीं है

वो आग बरसी है दोपहर की कई सारे मंज़र झुलस गये हैं
सुबह-सवेरे जो ताज़गी थी वो ताज़गी अब कहीं नहीं है

तुम अपने क़स्बों में जा के देखो वहाँ भी अब शहर ही बसे हैं
कि ढूँढते हो जो ज़िंदगी तुम वो ज़िंदगी अब कहीं नहीं है

बहुत दिनों बाद पाई फ़ुर्सत तो मैने खुद को पलट के देखा
मगर मैं पहचानता था जिस को वो आदमी अब कहीं नहीं है

गुज़र गया वक़्त दिल पे लिख के ना जाने कैसी अजीब बातें
पन्ने पलटता हूँ मैं जो दिल के तो सादगी अब कहीं नहीं है

- जावेद अख़्तर

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